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भारतीय संप्रभुता के पुजारी सरदार वल्लभ भाई पटेल

डॉ राघवेंद्र शर्मा
भारत में अनेक महापुरुष हुए, जिन्होंने अपने कर्म और कृतित्व के आधार पर नए-नए कीर्तिमान स्थापित किये। लेकिन सरदार वल्लभ भाई पटेल ऐसे व्यक्तित्व हैं जो सशरीर भले ही हमारे बीच ना हों, लेकिन प्रत्येक भारतीय के मन और मस्तिष्क में उनका स्थान अक्षुण्ण बना हुआ है तथा बना रहेगा। यह बात इसलिए कही जा सकती है, क्योंकि सरदार वल्लभ भाई पटेल एक ऐसे महान नेता हैं, जो देश को सर्वथा ऊपर रखकर चलते थे। उनका यह प्रण था कि यदि राष्ट्र हित में प्राण और सम्मान भी त्यागने पड़ जाए तो व्यक्ति को बगैर सोच विचार किया यह कर गुजरना चाहिए। कहते हैं राजनेताओं की कथनी और करनी में अंतर होता है। लेकिन कृतित्व और कथन में भारी संतुलन ही सरदार वल्लभ भाई पटेल को अन्य राजनीतिक जनों से अलग स्थापित करता है और उन्हें सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है। उदाहरण के लिए हमें उस कालखंड को स्मरण करना चाहिए जब महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों द्वारा हजारों लाखों प्राणों की आहुतियां देने के बाद देश आजाद हुआ और प्रधानमंत्री चुने जाने की बारी आई तो अधिकतम लोगों ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के पक्ष में मतदान किया। पुरजोर आवाज के साथ यह मांग रखी गई कि देश की अखंडता, उसकी संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल को आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनाया जाना सर्वथा उचित रहेगा। लेकिन यह बात पंडित जवाहरलाल नेहरू को रास नहीं आई। क्योंकि वह मन ही मन स्वयं को आजाद भारत का भावी प्रधानमंत्री मान चुके थे। अपनी यह लालसा उन्होंने महात्मा गांधी के समक्ष भी राखी। यही कारण है कि जब अभिमत सरदार वल्लभ भाई पटेल के पक्ष में चला गया, तब महात्मा गांधी ने सरदार वल्लभभाई पटेल से कहा कि आप अपना नाम वापस ले लीजिए। अनसीन यह भी कहा गया कि आप स्वयं आगे बढ़कर नेताओं को समझाइए कि मैं स्वेच्छा से इस पद पर रहना नहीं चाहता। क्योंकि यदि पंडित जवाहरलाल नेहरू अथवा महात्मा गांधी यह बात देश के कर्णधारों को कहते तो संभव है लोग बवंडर खड़ा कर देते और सरदार वल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने हेतु हठ पर पड़ जाते। सरदार वल्लभभाई पटेल जब भली-भांति जान गए की पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बनने की है ठान चुके हैं और महात्मा गांधी को भी उन्होंने अपनी राजहठ में शामिल कर लिया है तब उन्होंने इस बात की चिंता सताने लगी कि यदि मैं प्रधानमंत्री पद हेतु प्रस्तुत होता हूं तो स्वतंत्रता की शुरुआत में ही नई सरकार के बीच भारी मतभेद ही नहीं बल्कि मनभेद भी उत्पन्न हो जाएंगे। यह देश और स्वदेशी सरकार के लिए कतई उचित नहीं रहेगा। यह सोच विचार कर सरदार वल्लभभाई पटेल उठे और उन्होंने अपना नाम वापस लेते हुई पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम प्रधानमंत्री पद हेतु प्रस्तावित कर दिया। लिहाजा उनका कद आम जनता की नजरों में और बढ़ गया। इसी का नतीजा रहा की जन दबाव के चलते सरदार वल्लभभाई पटेल को उप प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री भी बनाना पड़ गया। एक नजरिये से देखा जाए तो उनका गृहमंत्री होना भी देश के लिए लाभदायक ही सिद्ध हुआ। उन्होंने अपने इस पद का सदुपयोग भारत गणराज्य को एकता के सूत्र में पिरोने हेतु जी जान से किया। फल स्वरुप राजशाही में बंटा हुआ यह भारत देश उनके भागीरथी प्रयासों से एक मजबूत गणराज्य में के रूप में स्थापित हो सका। सरदार वल्लभभाई पटेल ने भारत की आजादी के लिए भी जो संघर्ष किया वह एक लंबी कथा है। उसके लिए अच्छा खासा ग्रंथ लिखा जा सकता है। किंतु आज जब उनकी जयंती है तब मुझे लगा कि सरदार और लौह पुरुष होने का मतलब क्या होता है, यह पक्ष सुधीजन पाठकों के पास अवश्य पहुंचना चाहिए। अतः इस पावन दिवस की सभी देशवासियों को ढेर सारी शुभकामनाएं। हम प्रेरणा लें कि जिस प्रकार सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देश हित को ध्यान में रखकर निर्णय लिए, वही कार्य हम सभी भारतवासियों को भी करना चाहिए। संयोग वश  प्रदेश में विधानसभा के चुनाव भी चल रहे हैं। ऐसे में हम सरदार से सीख ले सकते हैं। हम जो भी निर्णय लें, वह अल्पकालिक लाभ और प्रलोभनों से हटकर देश हित, राष्ट्रहित, भारतीय संप्रभुता, उसकी एकता और अखंडता के हित में होना चाहिए। यदि हम लोकतंत्र के पावन पर्व में इस भावना के साथ मतदान रूपी आहुति दे पाए, तो हमारा यह प्रयास सरदार वल्लभ भाई पटेल द्वारा स्थापित किए गए आदर्शों पर एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा।

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