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विफलता छुपाना नहीं चाहती, श्रुति की यही विलक्षण प्रतिभा

श्रुति विफलता छुपाना नहीं चाहती, यही उसकी विलक्षण प्रतिभा

शब्दघोष, मोहनलाल मोदी।
देश और दुनिया के अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में प्रतिदिन की तरह आज भी एक से बढ़कर एक समाचार पढ़े, किंतु भोपाल से प्रकाशित एक समाचार पत्र के प्रमुख पृष्ठ पर प्रकाशित फ्लैश स्टोरी ने मेरा ध्यान बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यह स्टोरी उस साहसी नवयुवति की है जो उत्कृष्ट अंक लाने के बावजूद यूपीएससी में चयनित नहीं हो सकी। नाम है श्रुति श्रीवास्तव, जो कि मध्य प्रदेश शासन के गृह सचिव श्री ओमप्रकाश श्रीवास्तव की होनहार सुपुत्री हैं। स्टोरी इसलिए खास नहीं है, क्योंकि इस कहानी की केंद्र बिंदु नवयुवति एक सीनियर आईएएस की सुपुत्री है। बल्कि खास बात यह है कि श्रुति ने लोक सेवा आयोग में चयनित ना होने पर निराश होने की बजाय बहादुरी के साथ अपनी असफलता को स्वीकारा और सोशल मीडिया पर पोस्ट डालते हुए स्पष्ट किया कि
"मेरा चयन नहीं हुआ फिर भी फोटो शेयर कर रही हूं। असफलता छुपाना नहीं चाहती, स्वीकारना चाहती हूं। इसे मेरा हिस्सा बनाओ"
यदि संक्षिप्त में कहा जाए तो यह वह भाव है जो अपनों के बीच हमारी इस दृढ़ता को सार्वजनिक करता है कि यदि कोई हमें स्नेह करता हो तो हम जैसे हैं हमें उसी स्वरूप में अपनाने का हौसला दिखाए। यह भी सत्य है कि अपना जीवन अपनी तरह से जीने की इस तरह की शर्त वही शख्स रख सकता है, जिसे अपने पर पूर्ण विश्वास हो। बेशक यह दृढ़ विश्वास श्रुति श्रीवास्तव के अंतर्मन में स्थापित अदम्य साहस के दर्शन कराता प्रतीत होता है। बस यही वजह है कि पूरे समाचार पत्र में प्रकाशित इस एकमात्र स्टोरी ने आज का दिन खुशनुमा बना दिया।
दरअसल आज का युग प्रतिस्पर्धा का युग है। यदि और  स्पष्ट कहा जाए तो यह प्रतिस्पर्धा के बीच उत्पन्न उस गला काट स्पर्धा का युग बन गया है, जहां येन केन प्रकारेण पूर्व नियोजित सफलता अर्जित करना ही वर्तमान युवाओं का एकमात्र लक्ष्य बन कर रह गया है। कारण, उनके कांधों पर उनके अपने सुनहरे सपनों से अधिक समाज और परिवार की उन महत्वाकांक्षाओं का बोझ है, जो प्रतिस्पर्धी को केवल व्यावसायिक और सामाजिक क्षेत्र में सफल व्यक्तित्व के रूप में स्थापित होते देखना चाहती हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी पर इन महत्वाकांक्षाओं का बोझ इतना ज्यादा है कि वह अथक परिश्रम तो करती ही है, लेकिन जब सब कुछ दांव पर लगा देने के बाद भी असफलता हाथ लगती है तो फिर हार की हताशा ही उसकी नियति बन जाती है। जबकि यह जीवन की प्राकृत अवस्था नहीं है। जीवन का सही दर्शन भगवान कृष्ण अपने व्यवहार कौशल से अनेक प्रसंगों में प्रतिपादित करते रहे हैं। जैसे - उन्हें मालूम था कि कालयवन को पुरूषार्थ से पराजित नहीं किया जा सकता। अतः उन्होंने युद्ध के मैदान से पीछे हटने की कला अपनाई और "यह जमाना क्या कहेगा" इन आशंकाओं को धता बताते हुए वहां जा पहुंचे जहां पर महाराज मचकुंद चिर निद्रा  में लीन थे। अवसर की आवश्यकता को समझते हुए उन्होंने अपना पीतांबर सोए हुए राजा मचकुंद को ओढ़ा दिया। जब उनका पीछा करते हुए कलयवन उस गुफा में पहुंचा तो उसने सोए हुए मचकुंद के ऊपर पड़े पीतांबर को देखकर यह अनुमान लगा लिया कि यह श्री कृष्णा सो रहे हैं। बस उसने राजा मचकुंद को झकझोर कर जगा दिया और क्रोध अवस्था में जागृत राजा मचकुंद ने पूर्व निर्धारित वरदान के अनुसार उसे अपनी क्रोधित दृष्टि से भस्म कर दिया।
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https://youtu.be/s8Dz2s-_1rw?si=l5YdFObUK-NmiZKH
यह प्रसंग स्पष्ट करता है कि पुरुषार्थ द्वारा समस्त लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। कभी-कभी परिस्थितिवश कदम पीछे भी खींचना पढ़ते हैं और अनुकूल अवस्था की प्रतीक्षा में लंबी छलांग लगाने के लिए तैयार भी रहना पड़ता है। श्रुति श्रीवास्तव भी यही आदर्श स्थापित करती हैं कि यूपीएससी में चयनित हुआ जाए, यही सर्वोच्च लक्ष्य नहीं हो सकता। सामाजिक हित के कार्यों में स्वयं को समर्पित करके भी जीवन में उच्च आदर्श स्थापित किये जा सकते हैं। बेहद प्रसन्नता और संतुष्टि का विषय है कि एक आदर्श पिता की होनहार संतति ने अब समाज सेवा के क्षेत्र में कुछ अच्छा करने का स्थाई मन बना लिया है।
जाहिर है यह स्वर्णिम संस्कार श्रुति को अपने पिता श्री ओम प्रकाश श्रीवास्तव से ही मिले हैं। मैं यह बात इसलिए भी आत्मविश्वास के साथ लिख रहा हूं, क्योंकि ओ.पी. श्रीवास्तव के उत्कृष्ट लेख समय-समय पर समाचार पत्रों में पढ़ने को उपलब्ध होते रहते हैं। उनकी लेखनी में प्रशासनिक, सामाजिक और व्यवहारिक वास्तविकताओं के साथ-साथ धार्मिक एवं आध्यात्मिक पुट भी प्रमुखता के साथ बना रहता है। उनके आलेखों में विभिन्न कथानकों के माध्यम से समय-समय पर यह विकल्प भी पठनीय रहते हैं कि प्रतिकूल अवस्थाओं में मन और मस्तिष्क पर संयम रखते हुए व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित अन्य विकल्पों पर भी दृष्टिपात करते रहना चाहिए। ताकि जब एक लक्ष्य असाध्य हो जाए तो अपने अध्ययन और अनुभव को दूसरे विकल्प के माध्यम से सफल साबित किया जा सके। इसे यूं समझा जा सकता है। कंस वध के पश्चात भगवान कृष्ण मथुरा को सर्व साधन संपन्न राजधानी के रूप में विकसित करना चाहते थे। लेकिन वह जानते थे कि यदि मैं यहां रहा तो कंस का ससुर जरासंध मथुरा पर निरंतर आक्रमण करता रहेगा। ऐसे में वयोवृद्ध राजा उग्रसेन को क्लेश तो होगा ही प्रजा को भी प्रतिकूल अवस्थाओं से जूझना पड़ेगा। अतः उन्होंने द्वारकापुरी बसाने का दूसरा विकल्प चुना और समय आने पर भीम के हाथों जरासंध का वध करा दिया। यह ठीक वैसा ही है जैसे श्रुति का लक्ष्य समाज का हित करना है। तो वह केवल यूपीएससी के माध्यम से ही संभव हो पाएगा, ऐसा नहीं है। इस लक्ष्य को समाज सेवा के माध्यम से भी प्राप्त किया जा सकता है और  श्रुति ने अब समाज सेवा करने का मन बना लिया है। अपने पिता ओ.पी. श्रीवास्तव द्वारा प्रस्तुत किए गए उदाहरण के अनुसार 
"महिला बच्चों के सशक्तिकरण के लिए समाज में काम करना, यही जज्बा तुम्हें समाज में उत्कृष्ट स्थान दिलाएगा। भारत के कैबिनेट सेक्रेटरी को कितने लोग जानते हैं ? लेकिन बाबा आमटे और संत विनोबा भावे जैसे लोग अमर हो जाते हैं"
अंत में यही लिखना चाहूंगा कि प्रतिस्पर्धा के युग में जब युवा बालक और बालिकाएं छोटी बड़ी परीक्षाओं में असफल होकर आत्महत्या जैसे हृदय विधायक कदम उठा लेते हैं। ऐसे में उन्हें श्रुति को अपने आदर्श के रूप में देखना चाहिए। उनसे सीखना चाहिए कि हम जिस राह पर एक अवस्था को प्राप्त करने के लिए निरंतर चले जा रहे हों ,आवश्यक नहीं है कि मंजिल उसी रास्ते से मिले। कभी-कभी ऐसी परिस्थितियों भी सामने आ जाती हैं जब सामने केवल और केवल असफलता का अंधकार ही आंखों के सामने रह जाता है। ऐसे में धैर्य न खोते हुए इस सत्य को मन मस्तिष्क में जीवंत बनाए रखना चाहिए कि घटाघोप अंधकार के बाद सूर्योदय का होना भी प्रकृति का स्थापित नियम है। बस हमें प्रतिकूल अवस्थाओं में धैर्य और साहस को बनाए रखना है। वहीं वर्तमान अभिभावकों को भी श्रुति के पिता ओ.पी. श्रीवास्तव से यह सीख लेनी होगी कि वे अपनी महत्वाकांक्षाओं को अपने नौनिहालों पर न लादें। बल्कि जब विफलताओं से उनका सामना हो और वह किसी महत्वपूर्ण निर्णय लेने की अवस्था में अपने बड़ों का साथ चाहते हों तब वे संरक्षक की भूमिका में अपनी संतति के साथ खड़े हों और उनका मार्ग प्रशस्त करें। प्रतिकूल परिस्थितियों में उन्हें शांत मन के साथ इस पड़ाव से आगे की यात्रा किस तैयारी और किन लक्ष्यों के साथ प्रारंभ करने की आवश्यकता है, इस बाबत मार्गदर्शन करने के साथ ही यह जानने का उद्यम भी करें कि अभिभावकों ने जो सपने संजो रखे हैं, कहीं संतान के सपने कुछ और तो नहीं ? बस यही वह आवश्यक संतुलन है जो अभिभावकों और संतान के बीच होना अत्यंत आवश्यक है। यदि यह संतुलन स्थाई रूप से बना रहे तो संतान प्रतिकूल अवस्थाओं में भी सारगर्भित निर्णय लेने में सफल साबित होगी, ठीक उसी तरह जैसे श्रुति ने भविष्य में समाज सेवा करने का निर्णय खुले मन से अपने अभिभावकों को सुना दिया है। श्रुति को उज्जवल भविष्य की अनेक अनेक शुभकामनाएं और श्रीयुत श्रीवास्तव को पुत्री का उचित मार्गदर्शन करने के लिए साधुवाद।
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