दिग्विजय को अनुज की सियासी हत्या का दंड !
शब्दघोष, मोहनलाल मोदी
राजनीति की सीख देने वाले इस लेख की शुरुआत इस चौपाई के साथ -
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहि सो तस फल चाखा।।
भावार्थ यह कि इस दुनिया को कर्म प्रधान व्यवस्था के तहत रचा गया है। यहां जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। उदाहरण श्री रामचरितमानस के सुंदर कांड से लिया जा सकता है। इस प्रसंग में अहंकारी रावण, सद्मार्ग पर चलने वाले अपने छोटे भाई विभीषण को लात मार कर लंका से बाहर निकाल देता है। तब गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं कि -
अस कहि चले विभीषण जब ही।
आयु हीन भए सब, तब ही।।
अर्थात लंका से विभीषण के विमुख होते ही रावण सहित पापाचार में आसक्त सभी लंका निवासी आयूहीन अर्थात मृत्यु के वश हो गए। उसके बाद रावण समय-समय पर विभीषण को पानी पी पीकर कोसता रहा, किंतु उसे श्री राम के हाथों मरना ही पड़ा।
वर्तमान कथा वाचक अथवा स्वयंभू विद्वान पंडित भले ही विभीषण को घर का भेदी करार देते हों, लेकिन पूरा सत्य यही है कि रावण को विभीषण ने नहीं मरवाया। वह अपने कर्मों के वशीभूत होकर ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। हाल ही में संपन्न हुए आम चुनाव के दौरान राजगढ़ लोकसभा क्षेत्र में भी यही सब कुछ देखने को मिला। इस प्रसंग को पूर्णता प्राप्त करने के लिए हमें 2009 के इतिहास को सरसरी निगाहों में तौलना होगा। भाजपा के तेज आवेग से प्रभावित होकर दिग्विजय सिंह के छोटे भाई लक्ष्मण सिंह ने कांग्रेस को त्याग दिया था। वे 2009 का लोकसभा चुनाव राजगढ़ सीट पर भाजपाई मैंडेट से लड़ रहे थे। तब दिग्विजय सिंह ने इसे अपने अहम, का विषय बनाया और कांग्रेस में अपनी राजनीति चिर स्थापित करने के लिए अपने मां जाए सगे भाई को एक सरपंच के हाथों से बुरी तरह पराजित करा दिया। चुनाव में भाजपा प्रत्याशी और राजगढ़ के सांसद लक्ष्मण सिंह को हराकर कांग्रेस प्रत्याशी नारायण अमलाबे सरपंच पद से सीधे सांसद बनकर दिल्ली पहुंचे थे। चाटुकार दिग्विजयी समर्थकों ने तब भले ही इस बात का खुलकर विरोध नहीं किया। किंतु आम जनता यह मानकर बैठ चुकी थी कि राजा ने अपनी राजनीति चमकाने की गरज से अपने छोटे भाई को हराकर धर्म संगत कार्य नहीं किया। उधर छोटे भाई लक्ष्मण सिंह को भी कालांतर में अपने बड़े भाई के हिंदू विरोधी बयानों के चलते भाजपाई बयानों के तीरों से आहत होकर कांग्रेस में लौटना पड़ गया।
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तब से लेकर जनधारणा यही स्थापित है कि लक्ष्मण सिंह तन से भले ही कांग्रेस में लौट गए हों लेकिन उनका मन भाजपाई विचारों के इर्द-गिर्द ही संतुष्टि पता दिखाई देता है। उनके समय-समय पर जारी होने वाले बयान इस बात की तस्दीक भी करते हैं। इस बात को पूरे 15 साल बीत चुके हैं। तब से लेकर अब तक राजगढ़ लोकसभा क्षेत्र की तमाम नदियों में काफी पानी बह चुका है। लेकिन 2024 में इतिहास अपने को पुनः दोहराता प्रतीत होता है। वह इस प्रकार- भारतीय जनता पार्टी ने राजगढ़ लोकसभा क्षेत्र से वहीं के वर्तमान सांसद रोडमल नागर को अपना प्रत्याशी बनाया था। वह भी तब जबकि सभी सर्वेक्षण रोडमल नागर के खिलाफ जा रहे थे। चुनाव पूर्व के सर्वेक्षणों में भी रोडमल नागर को हारा हुआ प्रत्याशी बताया जा रहा था। लेकिन शिवराज सिंह चौहान की जातिवादी सोच एवं हठ के चलते उन्हें यहां से भाजपा को टिकट देना पड़ गया। मतदाता तो रोडमल नागर से विमुख थे ही, भाजपा और संघ के कार्यकर्ता भी उन्हें किसी भी सूरत में जिताना नहीं चाहते थे। यही वजह रही थी खुद रोड मल नागर ने मंच से अनेक बार यह अपील की कि आप मुझे ना सही, लेकिन मोदी जी को जिताने के लिए कमल के फूल पर बटन अवश्य दबाएं।
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भाजपा के दिग्गज प्रचारक भी विभिन्न मंचों से यही प्रार्थना करते दिखाई दिए कि हमें स्थानीय चेहरे को केंद्र में ना रखते हुए केवल नरेंद्र मोदी को ध्यान में रखकर वोट करना है। यहां तक कि रोडमल नागर ने चुनाव प्रचार के दौरान अपने जाने अनजाने में किए गए अनुचित व्यवहार के लिए एक से अधिक बार मतदाताओं से माफी भी मांगी। लिखने का आशय यह कि रोडमल नागर मतदान प्रक्रिया से पहले और उसके दौरान हारे हुए प्रत्याशी करार दिए जा चुके थे। यानि कि उनके अलावा भाजपा किसी और को प्रत्याशी बनाती तो वह वर्तमान सांसद से सर्वथा उत्कृष्ट ही साबित होता। अपने प्रति ऐसी सर्वथा अनुकूल स्थिति में कांग्रेस ने इसी क्षेत्र से पूर्व में सांसद रहे दिग्विजय सिंह को अपना उम्मीदवार घोषित किया। उन दिग्विजय सिंह को, जो राजगढ़ के सांसद रहे लक्ष्मण सिंह को इस क्षेत्र के एक सरपंच के हाथों हराने का दमखम रखते थे। जब कांग्रेस ने इसी क्षेत्र से पूर्व में सांसद रहे दिग्विजय सिंह को अपना उम्मीदवार घोषित किया। तब दिग्विजय सिंह जैसा अनुभवी और बुजुर्ग नेता स्वयं को शर्मनाक हार से बचा न पाया। उन्हें भाजपा के सर्वथा कमजोर प्रत्याशी के हाथों पराजय का स्वाद चखना पड़ गया। यह हार जीत का अनुभव ठीक वैसा ही था जैसा राजगढ़ लोकसभा क्षेत्र में 15 साल पहले देखने को मिला था। तब कांग्रेस ने भाजपा प्रत्याशी लक्ष्मण सिंह के खिलाफ एक सरपंच को मैदान में उतारा था और उस चुनाव में दिग्विजय सिंह ने अपने सगे भाई के खिलाफ जाकर एक सरपंच को जिताया था। अर्थातअपने अनुज को हार की गर्त में डुबो दिया था।
विधि का न्याय देखो! आज भाजपा ने अपने सबसे कमजोर प्रत्याशी को धुरंधर कहे जाने वाले कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह के खिलाफ मैदान में उतारा और राम रूपी मतदाता ने दिग्विजय सिंह की सियासी यात्रा को एक प्रकार से अवसान को प्राप्त करा दिया। इस प्रसंग को देखकर एक बेहद सफल फिल्म का गीत बरबस याद आ जाता है -
जो बोएगा, वही पाएगा।
तेरा किया आगे आएगा।
सुख-दुख है क्या, फल कर्मों का।
जैसी करनी वैसी भरनी।।
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